जीवनी/आत्मकथा >> और पंछी उड़ गया और पंछी उड़ गयाविष्णु प्रभाकर
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विष्णु प्रभाकर के जीवन परिचय का तीसरा भाग...
Aur Pankshi Ud Gaya a hindi book by Vishnu Prabhakar - और पंछी उड़ गया - विष्णु प्रभाकर
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यशस्वी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की बहुप्रतीक्षित आत्मकथा साथ ही पूरी एक सदी के साहित्यिक जीवन और समाज और देश का चारों ओर दृष्टि डालता आईना और दस्तावेज।
भूमिका
मेरे इस ‘दिशाहीन सफ़र’ का यह खण्ड मेरे लिए असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण हो गया है। इसका आरम्भ एक ऐसी घटना से होता है। जिसके बारे में मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। मेरा तात्पर्य बांग्ला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय की जीवनी से है। जीवनी लेखन मेरा विषय नहीं रहा लेकिन आकाशवाणी से त्याग पत्र देकर जब मैं मुम्बई पहुँचा तो ‘हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर’ के स्वामी श्री नाथूराम प्रेमी ने मुझसे कहा, ‘‘आप जानते हैं कि मैंने सारा शरत्-साहित्य हिन्दी में अनूदित करवा कर 43-44 भागों में प्रकाशित किया है। मैं चाहता हूँ कि उसका अन्तिम भाग उनकी जीवनी के रूप में प्रकाशित करूँ ! क्या आप मेरे लिए 200 पृष्ठ की शरत्-चन्द्र की एक जीवनी लिख सकेंगे ?’’
जैसा कि मैंने कहा मुझे विश्वास नहीं था कि मैं कभी किसी की जीवनी लिख सकूँगा। इसलिए मैंने इनकार कर दिया। लेकिन उन्होंने मेरे इनकार को स्वीकार नहीं किया और दो साल तक बराबर आग्रह करते रहे।
अन्त में मुझे उनका प्रस्ताव स्वीकार करना ही पड़ा। शरत् मेरे प्रिय लेखक थे। मैं अक्सर उनके उपन्यासों के पात्रों को लेकर सोचा करता था। लेकिन मैं आसानी से उनके जीवन की सामग्री प्राप्त नहीं कर सका। यद्यपि मैंने बांग्ला सीख ली थी, कुछ किताबें भी पढ़ी थीं लेकिन उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे जीवनी लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटा पाता। जो कुछ था वह अत्यन्त विश्रृंखल और अपमानजनक था। इसलिए अन्ततः मैं उनके वास्तविक जीवन की खोज में निकल पड़ा। सोचा था कि अधिक से अधिक एक साल लगेगा लेकिन लगे चौदह साल। कहाँ-कहाँ नहीं घूमना पड़ा मुझे। देश-विदेश में उन सब स्थानों पर गया जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से था या उनके पात्र वहाँ रहे थे। इसलिए जब यह जीवनी प्रकाशित हुई तो हिन्दी साहित्य में मेरा स्थान सुरक्षित हो गया।
यह सब कैसे हुआ, यह मैंने संक्षेप में इस खण्ड में बताया है। पूरी खोजी-यात्रा तो इस ग्रन्थ में नहीं आ सकी है, न ही आ सकती थी।
इस प्रकार इस खण्ड का आरम्भ मेरे जीवन की अनायास घटी स्वर्णिम घटना से हुआ और अन्त हुआ उतनी ही दो त्रासद घटनाओं से। इस अवधि में मैंने उन क्षणों को भोगा जो सघनतम पीड़ा के प्रतीक होते हैं। पीड़ा जो दर्द देती है तो पवित्र भी करती है। मेरी जीवन-संगिनी जो जीवन भर मेरे कन्धे पर हाथ रखे खड़ी रही, मुझे सब चिन्ताओं से मुक्त करके, और मेरे बड़े भाई तो मेरे ‘प्रसार-मन्त्री’ ही बन गए थे। वह जहाँ भी जाते साहित्य की चर्चा करते। वह खूब पढ़ते थे और जो वास्तव में पढ़ने योग्य होता वह मुझे लाकर देते थे। मेरे साहित्य के प्रति लोगों की जो प्रतिक्रिया होती उससे भी मुझे अवगत कराते और विचार-विनिमय करते।
तो ऐसे मेरे ये स्वजन सन् 1980 के जनवरी और फरवरी मास में मुझे सदा-सदा के लिए छोड़कर चले गए। इन दोनों घटनाओं का मैंने यथाशक्ति वर्णन किया है। लेकिन मैं स्वयं नहीं जानता कि मैं अपने मन के भावों को व्यक्त कर पाया या नहीं।
इन दिनों व्यक्तिगत घटनाओं के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटनाएँ इस अवधि में घटीं, जिन्होंने देश में उथल-पुथल मचा दी। कितनी यात्राएँ कीं मैंने, हिमालय की दुर्गम घाटियों से लेकर दक्षिण सागर के तट तक। दक्षिण पूर्व एशिया में बर्मा से लेकर सिंगापुर तक। इसके अतिरिक्त मारीशस की यात्रा और नेपाल जाने का अवसर भी इसी अवधि में मिला। एक और इसी प्रयत्न में मुझे जो अनुभूति हुई वह भी अभूतपूर्व थी। जहाँ एक ओर मैंने इस्पात के कारखाने देखे, वहीं मैंने ‘विपश्यना साधना’ की दीक्षा भी ली। मैंने देश के महापुरुषों को बहुत पास से देखा, लेकिन विश्व प्रसिद्ध मूक-बधिर और दृष्टि-हीन एक ऐसी नारी को तो देखकर मैं चकित रह गया जो अपनी उँगलियों की भाषा से बातचीत कर सकती थी और अपने युग की प्रसिद्ध कवयित्री थी। उस अद्भुत महिला का नाम है ‘हेलन केलर।’
अपने देश के राष्ट्रनेताओं के भी मैं निकट सम्पर्क में आया। नेहरू जी, राजेन्द्र बाबू, राधाकृष्णन, जयप्रकाश नारायण, जाकिर हुसैन आदि-आदि। लेकिन इन सबमें मुझे निकटता मिली केवल राजेन्द्र बाबू से। साहित्यकारों के बीच में तो मैं रहता ही था, कहाँ तक वर्णन करूँगा उनका।
यह खण्ड कई दृष्टियों से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है लेकिन उस सबको मैं शब्द कहाँ दे पाया हूँ। बस छूकर निकल गया हूँ। पर उस मिलन की गन्ध तो मेरे रोम-रोम में बस गई है-कहाँ यह विश्व प्रसिद्ध महिला कहाँ चम्बल की घाटी के डाकू। उन्होंने श्री जयप्रकाश नारायण के सामने आत्म-समर्पण कर दिया था। प्रसिद्ध गाँधीवादी साधक काशीनाथ त्रिवेदी के आग्रह पर मैं पन्द्रह दिन तक डाकुओं के साथ ग्वालियर जेल में रहा। इसी अवधि में ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ की नींव भी पड़ी। पहला अधिवेशन तो नागपुर, भारत में ही हुआ था दूसरा हुआ मारीशस में। मैंने दोनों में प्रमुख रूप से भाग लिया।
और इस देश के लिए जिसे सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना कहा जा सकता है वह आपात् काल इसी अवधि में लगाया गया। जयप्रकाश नारायण की ‘समग्र क्रान्ति’ का उद्घोष और दो वर्ष तक पूरे देश में अपूर्व उत्साह से मनाई जाने वाली शरत् जयन्ती। कैसी-कैसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घट गईं इस अवधि में। इन सबकी झाँकी मात्र ही दे पाया हूँ मैं। पर एक लेखक के लिए इन सबका क्या महत्त्व है, यह सभी जानते हैं।
इन सबसे मुझे जो अनुभूति हुई, जो अन्तर्मन्थन मेरे अन्तर में उमड़ा-घुमड़ा, उस सबको तो मैं शब्द दे ही नहीं पाया। परिवार तो जैसे हाशिये पर छूट गया। लेकिन हमारा यह संयुक्त परिवार ऐसा अद्भुत था कि फ्रांस की एक टी.वी. कम्पनी ने उस पर एक छोटी-सी फिल्म बनाई। लेनिनग्राड रेडियो स्टेशन से एक वार्ता प्रसारित हुई। मैं जानता हूँ कि इस सबके साथ मैं न्याय नहीं कर पाया। बहुत कुछ छूट गया है। प्रयत्न करूँगा कि जब चौथा भाग लिखूँ तो जो बच गया है उसकी कुछ झलकियाँ दे सकूँ। पंडित परमानन्द जैसे क्रान्तिकारियों की और अपनी राखी बन्द बहिनों को याद कर सकूँ। मेरी ये बहिनें मेरे प्रदेश उत्तर प्रदेश की ही नहीं, पंजाब, राजस्थान और कर्नाटक की भी हैं। इसी प्रकार मेरे भाई पूरे देश में ही नहीं, विदेशों में मेरी स्मृति को उल्लास प्रदान करते रहते हैं। उनमें से अधिकतर मित्रों के संस्करण लिखे हैं मैंने। फिर भी क्या न्याय कर पाया उनके साथ। नाप पाया ममता और प्यार की उस गहराई को जो मेरे प्रति उनके अन्तर में समाहित हो गई थी।
अन्त में एक ऐसी घटना की चर्चा करना चाहूँगा जिसका सम्बन्ध उनकी पत्नी से था। वे कौन थीं-शरत् बाबू ने अपने ‘वसीयतनामे’ में उन्हें अपनी पत्नी घोषित किया है। यह तो ठीक है पर वे वास्तव में थीं कौन, इस सम्बन्ध में मैंने अनेक कहानियाँ सुनीं। उनकी चर्चा भी मैंने की है। कुछ व्यक्ति थे जो उन्हें उनकी विवाहिता पत्नी नहीं मानते थे। उनकी प्रिय शिष्या श्रीमती राधारानी देवी उन्हीं में एक थीं। वे उन्हें किसी छोटे कुल की कन्या मानती थीं जिनका विवाह कुलीन परिवार के शरत् चन्द्र से हो ही नहीं सकता था।
शरत् बाबू की बहिन के परिवार के लोगों ने मुझे जो बताया वह मैंने लिखा ही है। उनकी दृष्टि में वे सब मन से गढ़कर लिखी हुई कहानियाँ हैं। तो फिर सत्य क्या है ? दो व्यक्तियों ने मुझे बताया था कि वास्तव में वे वेश्यापुत्री थीं। शरत् वेश्याओं के यहाँ जाते ही थे। वहीं एक लड़की ने उनसे कहा था कि वह इस जीवन से मुक्ति पाना चाहती है। आप मुझे यहाँ से ले चलिए।
और अन्ततः उनके साथ चली आई।
यह कहानी मुझे रंगून में वहाँ एक प्रेस के मालिक, जो शरत् के मित्रों में थे, उन्होंने और श्रीमती राधारानी देवी के पति श्री नरेन्द्रदेव ने बताई थी। इन्होंने तो शरत् की एक संक्षिप्त जीवनी भी लिखी है। लेकिन जब मैंने इन दोनों के पास इनसे ली गई भेंटवार्ता की प्रति प्रमाणित करने के लिए भेजी, तब इन्होंने मुझे लिखा कि आपको कुछ गलतफहमी हुई है। हमने आपसे ऐसा कुछ नहीं कहा था।
मैं क्या कर सकता था। प्रमाण के अभाव में मैंने इस तथ्य को ‘आवारा-मसीहा’ में उजागर नहीं किया पर इतने दिन शरत् के मित्रों और रिश्तेदारों के साथ रहकर मुझे पूर्ण विश्वास है कि सत्य यही है। शेष सब मनगढ़ंत है।
मुझे अब कुछ और नहीं कहना है।
केवल धन्यवाद देना है उस व्यक्ति को जिसने मेरे न चाहने पर भी मुझसे यह सब लिखवा लिया। वह बार-बार आग्रह न करते तो शायद ये संस्मरण अस्तित्व में ही नहीं आते। उस व्यक्ति का नाम है डॉ. श्यामसुन्दर व्यास और वह सम्पादन करते हैं मध्य प्रदेश इन्दौर से प्रकाशित होने वाली सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘वीणा’ का। वीणा सम्भवतः हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में सबसे दीर्घजीवी पत्रिका है।
मैंने डॉ. श्यामसुन्दर व्यास को धन्यवाद देने की बात कही लेकिन क्या उन्हें धन्यवाद देने के लिए शब्द मेरे पास हैं। और क्या उस अनुभूति को शब्द दिए जा सकते हैं। वह तो शब्दातीत है। या कहूँ वह तो ‘नेह का नाता’ है जिसे शब्दों की आवश्यकता ही नहीं होती।
तो क्यों व्यर्थ परिश्रम करूँ, विदा लूँ, अपने पाठकों से तब तक के लिए जब तक डॉ. श्यामसुन्दर व्यास जैसे कोई अन्य सुहृद्जन मुझे चौथा खण्ड लिखने को विवश न कर दें।
वैसे सच कहूँ मन तो मेरा भी करता है। देखिए....
जैसा कि मैंने कहा मुझे विश्वास नहीं था कि मैं कभी किसी की जीवनी लिख सकूँगा। इसलिए मैंने इनकार कर दिया। लेकिन उन्होंने मेरे इनकार को स्वीकार नहीं किया और दो साल तक बराबर आग्रह करते रहे।
अन्त में मुझे उनका प्रस्ताव स्वीकार करना ही पड़ा। शरत् मेरे प्रिय लेखक थे। मैं अक्सर उनके उपन्यासों के पात्रों को लेकर सोचा करता था। लेकिन मैं आसानी से उनके जीवन की सामग्री प्राप्त नहीं कर सका। यद्यपि मैंने बांग्ला सीख ली थी, कुछ किताबें भी पढ़ी थीं लेकिन उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे जीवनी लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटा पाता। जो कुछ था वह अत्यन्त विश्रृंखल और अपमानजनक था। इसलिए अन्ततः मैं उनके वास्तविक जीवन की खोज में निकल पड़ा। सोचा था कि अधिक से अधिक एक साल लगेगा लेकिन लगे चौदह साल। कहाँ-कहाँ नहीं घूमना पड़ा मुझे। देश-विदेश में उन सब स्थानों पर गया जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से था या उनके पात्र वहाँ रहे थे। इसलिए जब यह जीवनी प्रकाशित हुई तो हिन्दी साहित्य में मेरा स्थान सुरक्षित हो गया।
यह सब कैसे हुआ, यह मैंने संक्षेप में इस खण्ड में बताया है। पूरी खोजी-यात्रा तो इस ग्रन्थ में नहीं आ सकी है, न ही आ सकती थी।
इस प्रकार इस खण्ड का आरम्भ मेरे जीवन की अनायास घटी स्वर्णिम घटना से हुआ और अन्त हुआ उतनी ही दो त्रासद घटनाओं से। इस अवधि में मैंने उन क्षणों को भोगा जो सघनतम पीड़ा के प्रतीक होते हैं। पीड़ा जो दर्द देती है तो पवित्र भी करती है। मेरी जीवन-संगिनी जो जीवन भर मेरे कन्धे पर हाथ रखे खड़ी रही, मुझे सब चिन्ताओं से मुक्त करके, और मेरे बड़े भाई तो मेरे ‘प्रसार-मन्त्री’ ही बन गए थे। वह जहाँ भी जाते साहित्य की चर्चा करते। वह खूब पढ़ते थे और जो वास्तव में पढ़ने योग्य होता वह मुझे लाकर देते थे। मेरे साहित्य के प्रति लोगों की जो प्रतिक्रिया होती उससे भी मुझे अवगत कराते और विचार-विनिमय करते।
तो ऐसे मेरे ये स्वजन सन् 1980 के जनवरी और फरवरी मास में मुझे सदा-सदा के लिए छोड़कर चले गए। इन दोनों घटनाओं का मैंने यथाशक्ति वर्णन किया है। लेकिन मैं स्वयं नहीं जानता कि मैं अपने मन के भावों को व्यक्त कर पाया या नहीं।
इन दिनों व्यक्तिगत घटनाओं के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटनाएँ इस अवधि में घटीं, जिन्होंने देश में उथल-पुथल मचा दी। कितनी यात्राएँ कीं मैंने, हिमालय की दुर्गम घाटियों से लेकर दक्षिण सागर के तट तक। दक्षिण पूर्व एशिया में बर्मा से लेकर सिंगापुर तक। इसके अतिरिक्त मारीशस की यात्रा और नेपाल जाने का अवसर भी इसी अवधि में मिला। एक और इसी प्रयत्न में मुझे जो अनुभूति हुई वह भी अभूतपूर्व थी। जहाँ एक ओर मैंने इस्पात के कारखाने देखे, वहीं मैंने ‘विपश्यना साधना’ की दीक्षा भी ली। मैंने देश के महापुरुषों को बहुत पास से देखा, लेकिन विश्व प्रसिद्ध मूक-बधिर और दृष्टि-हीन एक ऐसी नारी को तो देखकर मैं चकित रह गया जो अपनी उँगलियों की भाषा से बातचीत कर सकती थी और अपने युग की प्रसिद्ध कवयित्री थी। उस अद्भुत महिला का नाम है ‘हेलन केलर।’
अपने देश के राष्ट्रनेताओं के भी मैं निकट सम्पर्क में आया। नेहरू जी, राजेन्द्र बाबू, राधाकृष्णन, जयप्रकाश नारायण, जाकिर हुसैन आदि-आदि। लेकिन इन सबमें मुझे निकटता मिली केवल राजेन्द्र बाबू से। साहित्यकारों के बीच में तो मैं रहता ही था, कहाँ तक वर्णन करूँगा उनका।
यह खण्ड कई दृष्टियों से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है लेकिन उस सबको मैं शब्द कहाँ दे पाया हूँ। बस छूकर निकल गया हूँ। पर उस मिलन की गन्ध तो मेरे रोम-रोम में बस गई है-कहाँ यह विश्व प्रसिद्ध महिला कहाँ चम्बल की घाटी के डाकू। उन्होंने श्री जयप्रकाश नारायण के सामने आत्म-समर्पण कर दिया था। प्रसिद्ध गाँधीवादी साधक काशीनाथ त्रिवेदी के आग्रह पर मैं पन्द्रह दिन तक डाकुओं के साथ ग्वालियर जेल में रहा। इसी अवधि में ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ की नींव भी पड़ी। पहला अधिवेशन तो नागपुर, भारत में ही हुआ था दूसरा हुआ मारीशस में। मैंने दोनों में प्रमुख रूप से भाग लिया।
और इस देश के लिए जिसे सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना कहा जा सकता है वह आपात् काल इसी अवधि में लगाया गया। जयप्रकाश नारायण की ‘समग्र क्रान्ति’ का उद्घोष और दो वर्ष तक पूरे देश में अपूर्व उत्साह से मनाई जाने वाली शरत् जयन्ती। कैसी-कैसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घट गईं इस अवधि में। इन सबकी झाँकी मात्र ही दे पाया हूँ मैं। पर एक लेखक के लिए इन सबका क्या महत्त्व है, यह सभी जानते हैं।
इन सबसे मुझे जो अनुभूति हुई, जो अन्तर्मन्थन मेरे अन्तर में उमड़ा-घुमड़ा, उस सबको तो मैं शब्द दे ही नहीं पाया। परिवार तो जैसे हाशिये पर छूट गया। लेकिन हमारा यह संयुक्त परिवार ऐसा अद्भुत था कि फ्रांस की एक टी.वी. कम्पनी ने उस पर एक छोटी-सी फिल्म बनाई। लेनिनग्राड रेडियो स्टेशन से एक वार्ता प्रसारित हुई। मैं जानता हूँ कि इस सबके साथ मैं न्याय नहीं कर पाया। बहुत कुछ छूट गया है। प्रयत्न करूँगा कि जब चौथा भाग लिखूँ तो जो बच गया है उसकी कुछ झलकियाँ दे सकूँ। पंडित परमानन्द जैसे क्रान्तिकारियों की और अपनी राखी बन्द बहिनों को याद कर सकूँ। मेरी ये बहिनें मेरे प्रदेश उत्तर प्रदेश की ही नहीं, पंजाब, राजस्थान और कर्नाटक की भी हैं। इसी प्रकार मेरे भाई पूरे देश में ही नहीं, विदेशों में मेरी स्मृति को उल्लास प्रदान करते रहते हैं। उनमें से अधिकतर मित्रों के संस्करण लिखे हैं मैंने। फिर भी क्या न्याय कर पाया उनके साथ। नाप पाया ममता और प्यार की उस गहराई को जो मेरे प्रति उनके अन्तर में समाहित हो गई थी।
अन्त में एक ऐसी घटना की चर्चा करना चाहूँगा जिसका सम्बन्ध उनकी पत्नी से था। वे कौन थीं-शरत् बाबू ने अपने ‘वसीयतनामे’ में उन्हें अपनी पत्नी घोषित किया है। यह तो ठीक है पर वे वास्तव में थीं कौन, इस सम्बन्ध में मैंने अनेक कहानियाँ सुनीं। उनकी चर्चा भी मैंने की है। कुछ व्यक्ति थे जो उन्हें उनकी विवाहिता पत्नी नहीं मानते थे। उनकी प्रिय शिष्या श्रीमती राधारानी देवी उन्हीं में एक थीं। वे उन्हें किसी छोटे कुल की कन्या मानती थीं जिनका विवाह कुलीन परिवार के शरत् चन्द्र से हो ही नहीं सकता था।
शरत् बाबू की बहिन के परिवार के लोगों ने मुझे जो बताया वह मैंने लिखा ही है। उनकी दृष्टि में वे सब मन से गढ़कर लिखी हुई कहानियाँ हैं। तो फिर सत्य क्या है ? दो व्यक्तियों ने मुझे बताया था कि वास्तव में वे वेश्यापुत्री थीं। शरत् वेश्याओं के यहाँ जाते ही थे। वहीं एक लड़की ने उनसे कहा था कि वह इस जीवन से मुक्ति पाना चाहती है। आप मुझे यहाँ से ले चलिए।
और अन्ततः उनके साथ चली आई।
यह कहानी मुझे रंगून में वहाँ एक प्रेस के मालिक, जो शरत् के मित्रों में थे, उन्होंने और श्रीमती राधारानी देवी के पति श्री नरेन्द्रदेव ने बताई थी। इन्होंने तो शरत् की एक संक्षिप्त जीवनी भी लिखी है। लेकिन जब मैंने इन दोनों के पास इनसे ली गई भेंटवार्ता की प्रति प्रमाणित करने के लिए भेजी, तब इन्होंने मुझे लिखा कि आपको कुछ गलतफहमी हुई है। हमने आपसे ऐसा कुछ नहीं कहा था।
मैं क्या कर सकता था। प्रमाण के अभाव में मैंने इस तथ्य को ‘आवारा-मसीहा’ में उजागर नहीं किया पर इतने दिन शरत् के मित्रों और रिश्तेदारों के साथ रहकर मुझे पूर्ण विश्वास है कि सत्य यही है। शेष सब मनगढ़ंत है।
मुझे अब कुछ और नहीं कहना है।
केवल धन्यवाद देना है उस व्यक्ति को जिसने मेरे न चाहने पर भी मुझसे यह सब लिखवा लिया। वह बार-बार आग्रह न करते तो शायद ये संस्मरण अस्तित्व में ही नहीं आते। उस व्यक्ति का नाम है डॉ. श्यामसुन्दर व्यास और वह सम्पादन करते हैं मध्य प्रदेश इन्दौर से प्रकाशित होने वाली सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘वीणा’ का। वीणा सम्भवतः हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में सबसे दीर्घजीवी पत्रिका है।
मैंने डॉ. श्यामसुन्दर व्यास को धन्यवाद देने की बात कही लेकिन क्या उन्हें धन्यवाद देने के लिए शब्द मेरे पास हैं। और क्या उस अनुभूति को शब्द दिए जा सकते हैं। वह तो शब्दातीत है। या कहूँ वह तो ‘नेह का नाता’ है जिसे शब्दों की आवश्यकता ही नहीं होती।
तो क्यों व्यर्थ परिश्रम करूँ, विदा लूँ, अपने पाठकों से तब तक के लिए जब तक डॉ. श्यामसुन्दर व्यास जैसे कोई अन्य सुहृद्जन मुझे चौथा खण्ड लिखने को विवश न कर दें।
वैसे सच कहूँ मन तो मेरा भी करता है। देखिए....
-विष्णु प्रभाकर
और पंछी उड़ गया।
इप्टा के सम्मेलन के तुरन्त बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन गोहाटी (असम) में होने जा रहा था। संयोग से अजमेर राज्य के मुख्यमंत्री और बाद में राजस्थान के वित्तमंत्री श्री हरिभाऊ उपाध्याय, जो गाँधीजी के साथी और प्रसिद्ध राजनेता थे वहाँ जा रहे थे और उनके साथ जा रहे थे सस्ता साहित्य मण्डल के मंत्री और उनके छोटे भाई मार्तण्य उपाध्याय। यशपाल जैन भी अब मण्डल में आ चुके थे और पत्रिका का सम्पादन करते थे। मेरे अग्रज ब्रह्मानन्द जी भी वहाँ जन सम्पर्क का काम देखते थे।
तब हम सबने निश्चय किया कि हम गोहाटी चलेंगे। दिल्ली से कोलकाता ट्रेन से और फिर वहाँ से गोहाटी तक की यात्रा हवाई जहाज से हुई। एक रोचक घटना यहाँ भी घट गई। और सब लोगों को तो कोलकाता से पहले दिन का टिकट मिल गया। मुझे दूसरे दिन का मिला लेकिन तभी अचानक बेटी की बीमारी का तार पाकर मार्तण्डजी को दिल्ली लौट जाना पड़ा। तब यह निश्चय किया गया कि मेरा टिकट वापिस कर दिया जाये और मैं मार्तण्डजी के नाम से ही जाना गया। दुर्भाग्य से कोई घटना घट जाती तो मरता मैं, नाम मार्तण्डजी का छपता।
भारत कितना सुन्दर देश है; यह मैं कश्मीर घाटी को देखकर जान चुका था। भयंकर भूकम्पों और भयानक बाढ़ों के लिए प्रसिद्ध असम का सौन्दर्य उतना रंगीन तो नहीं था परन्तु उसकी हरीतिमा, सघन वनश्री, चारों ओर फैले चाय-बागान और सबसे बढ़कर ब्रह्मपुत्र रौरवनाद-हम सबको चकित करता रहता था। कृष्ण ने जिसको मार कर सोलह हज़ार राज-कन्याओं का उद्धार किया था वह नरकासुर यहीं का राजा था। बहुत कुछ देखा वहाँ। उस सबका वर्णन करना तो सम्भव नहीं है। लेकिन कुछ बातें निश्चय ही मानस-पटल पर अंकित होकर रह गई हैं। कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रश्न भी उठा था। तमिलदेश के एक नेता ने कहा था-‘‘हिन्दी भाषी लोग जब तक अपने घर में हिन्दी को स्थापित नहीं करते तब तक उन्हें हमें हिन्दी सीखने के लिए कहने का कोई अर्थ नहीं है।’’ इसके उत्तर में सेठ जमनादास बजाज के बड़े पुत्र श्री कमलनयन बजाज ने कुछ ऐसी बातें कहीं जो पं. जवाहरलाल नेहरू को पसन्द नहीं आईं। वे क्रुद्ध हो उठे। इस पर जमनालालजी की पत्नी जानकीदेवी बजाज और पुत्री श्री मदालसा बहिन विचलित हो गईं। जानकीदेवी ने कमलनयन से कहा-‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था।’’
श्री कमलनयन ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने वही कहा जो मुझे कहना चाहिए था। उसके लिए मुझे कुछ अफ़सोस नहीं है।’’
सेठ गोविन्ददासजी भी मंच पर मौजूद थे। वह तटस्थ भाव से देखते रहे। कुछ विशेष नहीं बोले। मेरे लिए यह अकल्पनीय बात थी। अगले दिन सवेरे इसका रहस्य समझ में आया। हमारा दल सवेरे-सवेरे घूमने के लिए कहीं जा रहा था तो सामने से सेठजी आते नज़र आये। पास आने पर उन्होंने पूछा-‘क्या आपने आज का अख़बार देखा है ? कार्यकारिणी में कौन-कौन लोग आये हैं।’’
मैंने उत्तर दिया-‘सेठजी यह तो आप मुझ से अधिक जानते हैं।’
उत्तर दिये बिना वे चले गए। थोड़ी देर बाद जब मैंने अखबार देखा तो मैं सब कुछ समझ गया। उस बार सेठजी को कार्यकारिणी में शामिल किया गया था।
इस प्रदेश की संस्कृति के निर्माण में नारी का प्रमुख स्थान है। कोई भी ऐसा काम नहीं है जो वह नहीं कर सकती। उड़ते हुए बादलों के नीचे, सुनहरे खेतों के बीच फसल काटती हुई असमिया बाला जब गीत गाती है तो वह सारी घाटी मंत्रमुग्ध हो उठती है। उसका पहनावा भी सुन्दर है-मेखला, छाती ढकने वाली चादर और शाल, इसका लाल बूटेदार किनारा और मूँगा। रेशम और कपास के सभी घपेलू वस्त्र वे स्वयं ही करघों पर बुनती हैं। गाँधीजी ने कहा था, वे करघे पर कविताएँ बुनती हैं। यहाँ यह मान्यता है कि जो लड़की नाचना और बुनना नहीं जानती वह कुछ नहीं जानती। यहाँ का विहू नाच बहुत प्रसिद्ध है जिसमें युवक-युवतियाँ समान रूप से भाग लेते हैं। वैष्णव नाट का प्रचार यहाँ महापुरुष शंकरदेव ने किया था।
स्वाभाविक ही था कि हम दर्शनीय स्थल भी देखते। सबसे दर्शनीय है कामाख्या देवी का मन्दिर। शिव के तो अनेक मन्दिर मिलते हैं लेकिन उनकी पत्नी का यही एक मन्दिर है। निश्चय ही यह तांत्रिकों के प्रभाव के कारण बना होगा क्योंकि यहाँ प्रसाद के रूप में एक सफेद कपड़ा, मूर्ति के नीचे लाल रंग होने का प्रसाद है। यहीं पर बंगाली लोग बकरे की बलि चढ़ाते हैं। उसका सिर वहीं रह जाता है और धड़ को वे दो बाँसों में टाँग कर घर ले जाते हैं और पास-पड़ोस में बाँटते हैं। असम तो जादूगरों और तांत्रिकों का प्रदेश माना जाता रहा है। उसका प्रभाव हमें स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है।
लेकिन हमने अपने को गोहाटी तक ही सीमित नहीं रखा, शिलोंग भी गए नारी यहाँ मुक्त थी लेकिन सुशिक्षित भी थी और सुन्दर भी। हम काजीरंगा अभयारण्य देखने भी गए। हम हाथी पर सवार थे और गैंडा आदि वन्य पशु स्वतन्त्र रूप से चारों ओर विचर रहे थे। चेरापूँजी जहाँ दुनिया में सबसे अधिक वर्षा होती है स्वयं पानी का सबसे ज्यादा अभाव है। वह पहाड़ी स्थान है इसलिए वर्षा का पानी चारों ओर बह जाता है। बांग्लादेश की सीमा लगी हुई है। हम पहाड़ की चोटी से यह सब देख सके।
यहाँ ‘खासी’ जाति का प्रभुत्व है। वह मातृमूलक समाज है। नारी का वर्चस्व है। पति पैसे के लिए पत्नी के आगे हाथ फैलाता है और पत्नी स्वामिनी की तरह से सब कुछ सहेजती है। काफ़ी मुक्त समाज है यहाँ, वर्जनाएँ उसे परेशान नहीं करतीं। एक परिवार में जाने का अवसर भी मिला। उस परिवार की एक युवती ने एक हिन्दुस्तानी मुस्लिम युवक से शादी की थी। वह ड्राइवर था। किसी दुर्घटना में उसे चोट आ गई थी और वह अस्पताल में दाखिल था। उस युवती ने बड़े दर्द भरे स्वर में हमसे कहा, ‘‘वह चाहता है कि मैं हर वक्त उसकी चारपाई की पट्टी पर सिर रखे बैठी रहूँ। बताइये ये कैसे हो सकता है। मुझे और भी तो कितने काम हैं।’’
यह घटना एक हिन्दू नारी और ‘खासी नारी’ की मानसिक स्थिति को स्पष्ट करती है लेकिन जहाँ तक सेक्स का प्रश्न है हिन्दू नारी भी कम स्वतन्त्र नहीं है। यहाँ विधवा किसी न किसी पुरुष से संबंध रखती ही है। बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सुना। सब वर्जनाओं से मुक्त होकर सोचें तो इसमें दोष व्यक्ति का नहीं सामाजिक विधि-विधानों और उनके निर्माताओं का है।
लेकिन असम की यात्रा ब्रह्मपुत्र के बीच बसे हुए मांजली द्वीप को देखे बिना पूरी नहीं हो सकती। महापुरुष शंकर देव द्वारा स्थापित वैष्णव सम्प्रदाय का यह मुख्य क्षेत्र है। असम की संस्कृति का सच्चा रूप यहीं मिलता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है।
कोलकत्ता-यात्रा का पूरा विवरण मैंने अपने लेख ‘जहाँ आकाश नहीं दिखाई देता’ में किया है। यह लेख मेरी पुस्तक ‘हँसते निर्झर और दहकती भट्टी’ में संकलित है।
कितना कुछ देखा और उन तीन-चार दिनों में। सब कुछ चकित कर देने वाला। घुमन्तू जीवन की यही तो उपलब्धि है और इसने मुझे इतना कुछ दिया कि तब से लेकर 1973 तक मैं निरन्तर घूमता ही रहा। पहले हिमालय का आकर्षण मुझे जमुनोत्री, गंगोत्री और अमरनाथ खींच ले गया। उसके बाद शरत् चन्द्र के जीवन की सामग्री की खोज में सन् 1959 से 1972 के अन्त तक चौदह वर्ष कहाँ से आकर कहाँ चले गए, पता ही नहीं चला। शुरू में मैंने राहुल जी के शब्दों में जिस ‘साहित्य-विजय’ की बात कही थी क्या वह यही नहीं है ?
पहले मैं आपको हिमालय ‘तुंग-श्रृंग’ की घाटियों में ले जाना चाहूँगा। कविवर पंडित सुमित्रानन्दन पन्त के शब्दों में कहूँ तो-
मानदण्ड भू के अखण्ड हे
पुण्यधरा के स्वर्गारोहण प्रिय हिमाद्रि,
तुमको हिमकण से घेरे,
मेरे जीवन के क्षण।
तब हम सबने निश्चय किया कि हम गोहाटी चलेंगे। दिल्ली से कोलकाता ट्रेन से और फिर वहाँ से गोहाटी तक की यात्रा हवाई जहाज से हुई। एक रोचक घटना यहाँ भी घट गई। और सब लोगों को तो कोलकाता से पहले दिन का टिकट मिल गया। मुझे दूसरे दिन का मिला लेकिन तभी अचानक बेटी की बीमारी का तार पाकर मार्तण्डजी को दिल्ली लौट जाना पड़ा। तब यह निश्चय किया गया कि मेरा टिकट वापिस कर दिया जाये और मैं मार्तण्डजी के नाम से ही जाना गया। दुर्भाग्य से कोई घटना घट जाती तो मरता मैं, नाम मार्तण्डजी का छपता।
भारत कितना सुन्दर देश है; यह मैं कश्मीर घाटी को देखकर जान चुका था। भयंकर भूकम्पों और भयानक बाढ़ों के लिए प्रसिद्ध असम का सौन्दर्य उतना रंगीन तो नहीं था परन्तु उसकी हरीतिमा, सघन वनश्री, चारों ओर फैले चाय-बागान और सबसे बढ़कर ब्रह्मपुत्र रौरवनाद-हम सबको चकित करता रहता था। कृष्ण ने जिसको मार कर सोलह हज़ार राज-कन्याओं का उद्धार किया था वह नरकासुर यहीं का राजा था। बहुत कुछ देखा वहाँ। उस सबका वर्णन करना तो सम्भव नहीं है। लेकिन कुछ बातें निश्चय ही मानस-पटल पर अंकित होकर रह गई हैं। कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रश्न भी उठा था। तमिलदेश के एक नेता ने कहा था-‘‘हिन्दी भाषी लोग जब तक अपने घर में हिन्दी को स्थापित नहीं करते तब तक उन्हें हमें हिन्दी सीखने के लिए कहने का कोई अर्थ नहीं है।’’ इसके उत्तर में सेठ जमनादास बजाज के बड़े पुत्र श्री कमलनयन बजाज ने कुछ ऐसी बातें कहीं जो पं. जवाहरलाल नेहरू को पसन्द नहीं आईं। वे क्रुद्ध हो उठे। इस पर जमनालालजी की पत्नी जानकीदेवी बजाज और पुत्री श्री मदालसा बहिन विचलित हो गईं। जानकीदेवी ने कमलनयन से कहा-‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था।’’
श्री कमलनयन ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने वही कहा जो मुझे कहना चाहिए था। उसके लिए मुझे कुछ अफ़सोस नहीं है।’’
सेठ गोविन्ददासजी भी मंच पर मौजूद थे। वह तटस्थ भाव से देखते रहे। कुछ विशेष नहीं बोले। मेरे लिए यह अकल्पनीय बात थी। अगले दिन सवेरे इसका रहस्य समझ में आया। हमारा दल सवेरे-सवेरे घूमने के लिए कहीं जा रहा था तो सामने से सेठजी आते नज़र आये। पास आने पर उन्होंने पूछा-‘क्या आपने आज का अख़बार देखा है ? कार्यकारिणी में कौन-कौन लोग आये हैं।’’
मैंने उत्तर दिया-‘सेठजी यह तो आप मुझ से अधिक जानते हैं।’
उत्तर दिये बिना वे चले गए। थोड़ी देर बाद जब मैंने अखबार देखा तो मैं सब कुछ समझ गया। उस बार सेठजी को कार्यकारिणी में शामिल किया गया था।
इस प्रदेश की संस्कृति के निर्माण में नारी का प्रमुख स्थान है। कोई भी ऐसा काम नहीं है जो वह नहीं कर सकती। उड़ते हुए बादलों के नीचे, सुनहरे खेतों के बीच फसल काटती हुई असमिया बाला जब गीत गाती है तो वह सारी घाटी मंत्रमुग्ध हो उठती है। उसका पहनावा भी सुन्दर है-मेखला, छाती ढकने वाली चादर और शाल, इसका लाल बूटेदार किनारा और मूँगा। रेशम और कपास के सभी घपेलू वस्त्र वे स्वयं ही करघों पर बुनती हैं। गाँधीजी ने कहा था, वे करघे पर कविताएँ बुनती हैं। यहाँ यह मान्यता है कि जो लड़की नाचना और बुनना नहीं जानती वह कुछ नहीं जानती। यहाँ का विहू नाच बहुत प्रसिद्ध है जिसमें युवक-युवतियाँ समान रूप से भाग लेते हैं। वैष्णव नाट का प्रचार यहाँ महापुरुष शंकरदेव ने किया था।
स्वाभाविक ही था कि हम दर्शनीय स्थल भी देखते। सबसे दर्शनीय है कामाख्या देवी का मन्दिर। शिव के तो अनेक मन्दिर मिलते हैं लेकिन उनकी पत्नी का यही एक मन्दिर है। निश्चय ही यह तांत्रिकों के प्रभाव के कारण बना होगा क्योंकि यहाँ प्रसाद के रूप में एक सफेद कपड़ा, मूर्ति के नीचे लाल रंग होने का प्रसाद है। यहीं पर बंगाली लोग बकरे की बलि चढ़ाते हैं। उसका सिर वहीं रह जाता है और धड़ को वे दो बाँसों में टाँग कर घर ले जाते हैं और पास-पड़ोस में बाँटते हैं। असम तो जादूगरों और तांत्रिकों का प्रदेश माना जाता रहा है। उसका प्रभाव हमें स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है।
लेकिन हमने अपने को गोहाटी तक ही सीमित नहीं रखा, शिलोंग भी गए नारी यहाँ मुक्त थी लेकिन सुशिक्षित भी थी और सुन्दर भी। हम काजीरंगा अभयारण्य देखने भी गए। हम हाथी पर सवार थे और गैंडा आदि वन्य पशु स्वतन्त्र रूप से चारों ओर विचर रहे थे। चेरापूँजी जहाँ दुनिया में सबसे अधिक वर्षा होती है स्वयं पानी का सबसे ज्यादा अभाव है। वह पहाड़ी स्थान है इसलिए वर्षा का पानी चारों ओर बह जाता है। बांग्लादेश की सीमा लगी हुई है। हम पहाड़ की चोटी से यह सब देख सके।
यहाँ ‘खासी’ जाति का प्रभुत्व है। वह मातृमूलक समाज है। नारी का वर्चस्व है। पति पैसे के लिए पत्नी के आगे हाथ फैलाता है और पत्नी स्वामिनी की तरह से सब कुछ सहेजती है। काफ़ी मुक्त समाज है यहाँ, वर्जनाएँ उसे परेशान नहीं करतीं। एक परिवार में जाने का अवसर भी मिला। उस परिवार की एक युवती ने एक हिन्दुस्तानी मुस्लिम युवक से शादी की थी। वह ड्राइवर था। किसी दुर्घटना में उसे चोट आ गई थी और वह अस्पताल में दाखिल था। उस युवती ने बड़े दर्द भरे स्वर में हमसे कहा, ‘‘वह चाहता है कि मैं हर वक्त उसकी चारपाई की पट्टी पर सिर रखे बैठी रहूँ। बताइये ये कैसे हो सकता है। मुझे और भी तो कितने काम हैं।’’
यह घटना एक हिन्दू नारी और ‘खासी नारी’ की मानसिक स्थिति को स्पष्ट करती है लेकिन जहाँ तक सेक्स का प्रश्न है हिन्दू नारी भी कम स्वतन्त्र नहीं है। यहाँ विधवा किसी न किसी पुरुष से संबंध रखती ही है। बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सुना। सब वर्जनाओं से मुक्त होकर सोचें तो इसमें दोष व्यक्ति का नहीं सामाजिक विधि-विधानों और उनके निर्माताओं का है।
लेकिन असम की यात्रा ब्रह्मपुत्र के बीच बसे हुए मांजली द्वीप को देखे बिना पूरी नहीं हो सकती। महापुरुष शंकर देव द्वारा स्थापित वैष्णव सम्प्रदाय का यह मुख्य क्षेत्र है। असम की संस्कृति का सच्चा रूप यहीं मिलता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है।
कोलकत्ता-यात्रा का पूरा विवरण मैंने अपने लेख ‘जहाँ आकाश नहीं दिखाई देता’ में किया है। यह लेख मेरी पुस्तक ‘हँसते निर्झर और दहकती भट्टी’ में संकलित है।
कितना कुछ देखा और उन तीन-चार दिनों में। सब कुछ चकित कर देने वाला। घुमन्तू जीवन की यही तो उपलब्धि है और इसने मुझे इतना कुछ दिया कि तब से लेकर 1973 तक मैं निरन्तर घूमता ही रहा। पहले हिमालय का आकर्षण मुझे जमुनोत्री, गंगोत्री और अमरनाथ खींच ले गया। उसके बाद शरत् चन्द्र के जीवन की सामग्री की खोज में सन् 1959 से 1972 के अन्त तक चौदह वर्ष कहाँ से आकर कहाँ चले गए, पता ही नहीं चला। शुरू में मैंने राहुल जी के शब्दों में जिस ‘साहित्य-विजय’ की बात कही थी क्या वह यही नहीं है ?
पहले मैं आपको हिमालय ‘तुंग-श्रृंग’ की घाटियों में ले जाना चाहूँगा। कविवर पंडित सुमित्रानन्दन पन्त के शब्दों में कहूँ तो-
मानदण्ड भू के अखण्ड हे
पुण्यधरा के स्वर्गारोहण प्रिय हिमाद्रि,
तुमको हिमकण से घेरे,
मेरे जीवन के क्षण।
2
हिमालय की पुकार मुझे सदा उद्वेलित करती रही है। इस पुकार ने ही मुझे यायावर बना दिया। प्रसिद्ध यायावर काका कालेलकर ने यात्रा के सम्बन्ध में लिखा है ‘‘जिस मनुष्य की वृत्तियाँ विकृत नहीं होतीं उसके लिए यात्रा की प्रेरणा उतनी ही स्वाभाविक होती है।’’
अपनी वृत्तियों के बारे में स्वयं मैं क्या कहूँ लेकिन आँखें अवश्य प्यासी हैं और शरीर भूखा है और नये-नये अनुभव प्राप्त करने को तो मन सदा व्याकुल रहता ही है। इसलिए जब हमारे कुछ पत्रकार और साहित्यिक बंधुओं ने मई 1958 में गंगा-जमुना की जन्मभूमि की यात्रा का प्रस्ताव रखा तब मन उछल पड़ा। सभी देश अपनी नदियों को प्यार करते हैं लेकिन भारतवासी गंगा-जमुना को माँ कहकर प्यार ही नहीं करते, उनकी पूजा भी करते हैं। तभी अनादिकाल से प्रति वर्ष असंख्य भारतवासी अपनी इस ममतामयी माँओं की जन्मभूमि में जाने के लिए प्राणों की बाजी लगाते आये हैं।
पर आज तो विज्ञान और टेक्नोलाजी का युग है। मनुष्य ने साधना के बल पर बीहड़ मार्गों पर मोटर चला दी हैं। इसलिए हमारे दल को बस द्वारा हरिद्वार, ऋषिकेश, नरेन्द्र नगर और घरासू होते हुए डूँडल गाँव में पहुँचने में काफ़ी असुविधा हुई। बस में गड़बड़ हो जाने के कारण वहाँ पर पहुँचते-पहुँचते पात हो गई। ठहरने को भी स्थान नहीं मिला। इसलिए निश्चय किया कि यात्रा की वह पहली रात खुले आकाश के नीचे बिताएँ। महिलाएँ बस में सोयें और पुरुष नाले के पक्के पुल पर। ऐसा ही किया। पाँच-छः हज़ार फुट पर रात काफ़ी ठण्डी हो जाती है लेकिन हमें शीत से इतना भय नहीं था जितना पशुओं और सरीसृपों का....इसलिए बारी-बारी से जागकर नक्षत्र मण्डल का अध्ययन करते रहे। आकाश कितना ऐश्वर्यशाली है यह मैं इन पहाड़ी प्रदेशों में तो जान पाया हूँ और जान पाया हूँ कि खतरा मनुष्य को कितनी शक्ति देता है...
अभी बस से दस मील और चलना है। तीन घंटे लग जाते बस के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचने में। लेकिन पर्वत प्रदेश का भोर, शिरों से आलिंगन करती स्वर्णिम रश्मियाँ, शीतल समीर, चीड़ और बाँसों की नयनाभिराम वृक्षावली, मन पुलक-पुलक उठता है। जो रात नरक बन गई थी वह अब रोमांटिक स्मृति का रूप लेकर मन में बस गई।
यहाँ से पैदल यात्रा आरम्भ होती थी। कुछ ही दूर चलने पर जमुना के प्रथम दर्शन हुए। आह ! यही है वह काली-कालिन्दी जो सूर्यसुता और यम की भगिनी कहलाती है। जिसके तट पर मोहन ने रास रचाए थे, जिसके तट पर विश्व का अद्भुत सौन्दर्य का प्रतीक ताज खड़ा है। उस नीलवर्णी, क्षीणकाय, स्वच्छशान्त जमुना को मैं बहुत देर तक देखता रहा मानो सुदृढ़ शरीर वाली पर्वतीय बाला प्रीतम की छवि नैनों में समाए, आतुर व्याकुल ऊँचे-नीचे मार्गों पर चली जा रही हो।
लेकिन प्रकृति यहाँ कितनी सुन्दर है, मानव और उसकी बस्तियाँ उतनी ही गन्दी। नवयुग की उपलब्धियाँ अभी उनसे दूर थीं। यही सब देखते हुए हम आगे बढ़ते रहे। जब जमुना के पास गए, तब देखा दूर से जो शान्त दिखाई देती थी वही पास आने पर शोर मचाकर इठलाने लगी। पत्थरों से टकरा-टकराकर उसका श्यामल नील जल फेनिल-धवल हो उठा।
लेकिन हमें तो आगे और आगे बढ़ना था। पहले पड़ाव पर पहुँचते-पहुँचते रात हो आई, कहीं कोई स्थान नहीं मिला। एक खुली दुकान पर एक कुमायूँनी युवती खड़ी थी, उसने भी मना कर दिया लेकिन पास ही एक खटोले पर उसका नवजात शिशु लेटा हुआ खिलखिला रहा था। हमारे मित्र यशपाल जैन उसके पास बैठ कर उससे खेलने लगे। जाने क्या हुआ उस युवती ने हमें उस खुली दुकान में रात बिताने की अनुमति दे दी और जहाँ तक हो सकता था हमें हर सुविधा देने का प्रयत्न भी किया। माँ की ममता जाग आई थी।
मार्ग सुगम नहीं थे। कहीं बार-बार जानलेवा चढ़ाई से लोहा लेना पड़ता। एक चढ़ाई पूरी करते, दूसरी सामने उभर आती। फरलांग मील बन जाते लेकिन जैसे ही चढ़ाई का अन्त होता हम एक दिव्य प्रदेश में पहुँच जाते। मीलों तक देवदार के मनोरम वृक्ष स्वागत में ग्रीवा उठाये मिलते। नीचे हरीतिमा, आकाश में सुरमयी घटायें, वनवासी श्वेत गुलाब की सुगन्ध, नाना औषधियों का द्रुमदल, पक्षी चहक रहे थे तो नीचे से जमुना का संगीत मुखर हो रहा था। तपोवन ऐसे ही तो होते होंगे।
बीच-बीच में वर्षा होने लगती। यात्री रास्ते की दुकानों में जा बैठते। गाय भी साया खोजने लगती परन्तु गढ़वाल की नारी पुश्तैनी चिथड़ों में लिपटी, सदा की तरह काम में व्यस्त रहती और बच्चे हाथ फैलाये पैसा माँगते थे-‘पैसा दो, पैसा दो।’ लड़कियाँ बिन्दियाँ माँगतीं और सूई-धागा माँगतीं लेकिन क्यों माँगते हैं ये लोग। माँगना तो आदमी को दीन बनाता है लेकिन यह भूख, यह असमानता यही तो विवश करती है उन्हें भीख माँगने को और ये ही क्यों बहुत सारे आदमी भी तो एक छोटी-सी पुटलिया लेकर चलते जाते, खुले मैदान में ही सो जाते। सवेरे चाय पीते और सत्तू खाते और चल पड़ते। सफ़ाई का महत्त्व उनको भी नहीं पता था। सरकार ने हर जगह शौचालयों का प्रबन्ध किया है किन्तु धर्मभीरु यात्री अपना मलमूत्र किसी से क्यों उठवाते, इसलिए रास्ते गन्दे करते रहते...।
इसी प्रकार प्रकृति के नाना रूप देखते, नाना रूप मनुष्यों से मिलते, जमुना मैया का जयघोष बुलवाते हमारा दल जानकी चट्टी के डाकबंगले में जाकर रुका। आगे की चढ़ाई ऐसी थी कि बड़े-बड़े आदमियों के फेफड़े जवाब दे जायें।
हमारे दल के संचालक श्री घोरपड़े (तत्कालीन सूचना और प्रसारण मन्त्री के निजी सचिव) बड़े अनुशासनप्रिय थे। सवेरे तीन बजे ही उठा दिया। तारों की छाया में रीछों से डरते, तैयार होकर पाँच बजे जमुना मैया की जन्मभूमि की ओर चल पड़े। प्रातःकालीन संजीवनी वायु का परस पाकर मन-प्राण में ऐसी अपूर्व शक्ति भर उठी कि ढाई मील की जान-लेवा चढ़ाई हमें आतंकित नहीं कर सकी। प्रकृति नटी ने उस प्रदेश को मानो वन-कन्या की तरह सँवारा था। इस रूप को पीते हुए हम ठण्ड-ठण्ड में बड़ी सरलता से उस भयंकर चढ़ाई को पार कर गए। मार्ग में लौटते हुए यात्री मिले जो गद्गद होकर जमुना मैया की जय पुकार रहे थे।
लेकिन जब हम जमुनोत्री पहुँचे तो सहसा धक्का लगा। एकदम तंग घाटी मानो तपस्विनी, उपेक्षिता नायिका का आवास हो। दोनों ओर गगनचुम्बी पर्वतों ने नन्ही यमुना को यमदूतों के समान घेर रखा था। यम की बहिन है न यह !
कहते हैं पुरातन काल में असित ऋषि ने यमुना के इस उद्गम को खोज निकाला था। वास्तव में बन्दर पुच्छ के 20732 फुट ऊँचे हिमशिखर पर जमुना का जन्म होता है। दूरबीन से हमने देखा तो क्षीण श्वेत दो रेखाएँ शिखर से उतर रही हैं। नीचे आते-आते वे एक हो गईं और उनका नाम हुआ कालिन्दी और यमुना। कालिन्दी इसलिए कि वह कलिन्द गिरि से निकलती है और यमुना इसलिए कि वहाँ जामुन का पेड़ बताया जाता है।
इस अगम्य तीर्थ की उँचाई केवल 10800 फुट है लेकिन शीत के कारण अधिकांश यात्री रात में यहाँ नहीं रुकते।
यहाँ का वास्तविक आकर्षण निरन्तर फक-फक करते तीन कुण्ड हैं जिनमें सहसा पैर देना कठिन होता है। धीरे-धीरे शरीर इस तापमान को सहन करता है। हम लोगों ने खूब जी भरके स्नान किया। एक कुण्ड का तापमान 195 डिग्री के लगभग है। उसमें आलू और चावल तक उबल जाते हैं। यही चावल यहाँ का प्रसाद माना जाता है। यहाँ और भी अनेक कुण्ड और धाराएँ हैं लेकिन कोई यह नहीं जानता कि जमुना की वास्तविक कथा क्या है ? व्यवस्था और स्वच्छता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। एक छोटा-सा आकर्षणहीन मन्दिर है जिसमें श्यामवर्ण यमुना और गौरवर्ण गंगा की मूर्तियाँ हैं। दोपहर बाद यहाँ कोहरा छा जाता है। हमें यहाँ रात को रुकना नहीं था इसलिए जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा और भोजनादि से निवृत्त होकर हम लौट चले। लौटने से पूर्व एक बार फिर सुमेरु पर्वत को देखा। भाप से ढके तप्त कुण्डों को देखा। देखा वेगवती गहन गम्भीर यमुना के शैशव रूप को जो बालोचित चपलता से पाषाण-खण्डों से आँख मिचौली खेलते हुए निरन्तर आगे बढ़ रही थी।
लेकिन गंगोत्री की ओर बढ़े इससे पहले अनेक में से एक रोचक घटना अवश्य बता देना चाहूँगा। हमारे दल में दो महिलायें थीं, उन्हें चढ़ने के लिए कठिनाई होगी इसलिए हमने उनके लिए कंडी कर लेना उचित समझा। एक कंडी वाले ने उन्हें देखकर कहा-‘‘एक माई जवान है और दूसरी तेज है।’’
सुनकर हम क्रोध से भर उठे। लेकिन जब हमें पता लगा कि उनकी भाषा में जवान का अर्थ ‘उचित बोझ’ और तेज का मतलब है ‘भारी’। तब हमें उतनी ही हँसी भी आई लेकिन नाटक का अन्त अभी शेष था। कंडी वाले ने कहा-‘‘अच्छा, साहब, हम ज़रा चखकर देख लें।’’
अपनी वृत्तियों के बारे में स्वयं मैं क्या कहूँ लेकिन आँखें अवश्य प्यासी हैं और शरीर भूखा है और नये-नये अनुभव प्राप्त करने को तो मन सदा व्याकुल रहता ही है। इसलिए जब हमारे कुछ पत्रकार और साहित्यिक बंधुओं ने मई 1958 में गंगा-जमुना की जन्मभूमि की यात्रा का प्रस्ताव रखा तब मन उछल पड़ा। सभी देश अपनी नदियों को प्यार करते हैं लेकिन भारतवासी गंगा-जमुना को माँ कहकर प्यार ही नहीं करते, उनकी पूजा भी करते हैं। तभी अनादिकाल से प्रति वर्ष असंख्य भारतवासी अपनी इस ममतामयी माँओं की जन्मभूमि में जाने के लिए प्राणों की बाजी लगाते आये हैं।
पर आज तो विज्ञान और टेक्नोलाजी का युग है। मनुष्य ने साधना के बल पर बीहड़ मार्गों पर मोटर चला दी हैं। इसलिए हमारे दल को बस द्वारा हरिद्वार, ऋषिकेश, नरेन्द्र नगर और घरासू होते हुए डूँडल गाँव में पहुँचने में काफ़ी असुविधा हुई। बस में गड़बड़ हो जाने के कारण वहाँ पर पहुँचते-पहुँचते पात हो गई। ठहरने को भी स्थान नहीं मिला। इसलिए निश्चय किया कि यात्रा की वह पहली रात खुले आकाश के नीचे बिताएँ। महिलाएँ बस में सोयें और पुरुष नाले के पक्के पुल पर। ऐसा ही किया। पाँच-छः हज़ार फुट पर रात काफ़ी ठण्डी हो जाती है लेकिन हमें शीत से इतना भय नहीं था जितना पशुओं और सरीसृपों का....इसलिए बारी-बारी से जागकर नक्षत्र मण्डल का अध्ययन करते रहे। आकाश कितना ऐश्वर्यशाली है यह मैं इन पहाड़ी प्रदेशों में तो जान पाया हूँ और जान पाया हूँ कि खतरा मनुष्य को कितनी शक्ति देता है...
अभी बस से दस मील और चलना है। तीन घंटे लग जाते बस के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचने में। लेकिन पर्वत प्रदेश का भोर, शिरों से आलिंगन करती स्वर्णिम रश्मियाँ, शीतल समीर, चीड़ और बाँसों की नयनाभिराम वृक्षावली, मन पुलक-पुलक उठता है। जो रात नरक बन गई थी वह अब रोमांटिक स्मृति का रूप लेकर मन में बस गई।
यहाँ से पैदल यात्रा आरम्भ होती थी। कुछ ही दूर चलने पर जमुना के प्रथम दर्शन हुए। आह ! यही है वह काली-कालिन्दी जो सूर्यसुता और यम की भगिनी कहलाती है। जिसके तट पर मोहन ने रास रचाए थे, जिसके तट पर विश्व का अद्भुत सौन्दर्य का प्रतीक ताज खड़ा है। उस नीलवर्णी, क्षीणकाय, स्वच्छशान्त जमुना को मैं बहुत देर तक देखता रहा मानो सुदृढ़ शरीर वाली पर्वतीय बाला प्रीतम की छवि नैनों में समाए, आतुर व्याकुल ऊँचे-नीचे मार्गों पर चली जा रही हो।
लेकिन प्रकृति यहाँ कितनी सुन्दर है, मानव और उसकी बस्तियाँ उतनी ही गन्दी। नवयुग की उपलब्धियाँ अभी उनसे दूर थीं। यही सब देखते हुए हम आगे बढ़ते रहे। जब जमुना के पास गए, तब देखा दूर से जो शान्त दिखाई देती थी वही पास आने पर शोर मचाकर इठलाने लगी। पत्थरों से टकरा-टकराकर उसका श्यामल नील जल फेनिल-धवल हो उठा।
लेकिन हमें तो आगे और आगे बढ़ना था। पहले पड़ाव पर पहुँचते-पहुँचते रात हो आई, कहीं कोई स्थान नहीं मिला। एक खुली दुकान पर एक कुमायूँनी युवती खड़ी थी, उसने भी मना कर दिया लेकिन पास ही एक खटोले पर उसका नवजात शिशु लेटा हुआ खिलखिला रहा था। हमारे मित्र यशपाल जैन उसके पास बैठ कर उससे खेलने लगे। जाने क्या हुआ उस युवती ने हमें उस खुली दुकान में रात बिताने की अनुमति दे दी और जहाँ तक हो सकता था हमें हर सुविधा देने का प्रयत्न भी किया। माँ की ममता जाग आई थी।
मार्ग सुगम नहीं थे। कहीं बार-बार जानलेवा चढ़ाई से लोहा लेना पड़ता। एक चढ़ाई पूरी करते, दूसरी सामने उभर आती। फरलांग मील बन जाते लेकिन जैसे ही चढ़ाई का अन्त होता हम एक दिव्य प्रदेश में पहुँच जाते। मीलों तक देवदार के मनोरम वृक्ष स्वागत में ग्रीवा उठाये मिलते। नीचे हरीतिमा, आकाश में सुरमयी घटायें, वनवासी श्वेत गुलाब की सुगन्ध, नाना औषधियों का द्रुमदल, पक्षी चहक रहे थे तो नीचे से जमुना का संगीत मुखर हो रहा था। तपोवन ऐसे ही तो होते होंगे।
बीच-बीच में वर्षा होने लगती। यात्री रास्ते की दुकानों में जा बैठते। गाय भी साया खोजने लगती परन्तु गढ़वाल की नारी पुश्तैनी चिथड़ों में लिपटी, सदा की तरह काम में व्यस्त रहती और बच्चे हाथ फैलाये पैसा माँगते थे-‘पैसा दो, पैसा दो।’ लड़कियाँ बिन्दियाँ माँगतीं और सूई-धागा माँगतीं लेकिन क्यों माँगते हैं ये लोग। माँगना तो आदमी को दीन बनाता है लेकिन यह भूख, यह असमानता यही तो विवश करती है उन्हें भीख माँगने को और ये ही क्यों बहुत सारे आदमी भी तो एक छोटी-सी पुटलिया लेकर चलते जाते, खुले मैदान में ही सो जाते। सवेरे चाय पीते और सत्तू खाते और चल पड़ते। सफ़ाई का महत्त्व उनको भी नहीं पता था। सरकार ने हर जगह शौचालयों का प्रबन्ध किया है किन्तु धर्मभीरु यात्री अपना मलमूत्र किसी से क्यों उठवाते, इसलिए रास्ते गन्दे करते रहते...।
इसी प्रकार प्रकृति के नाना रूप देखते, नाना रूप मनुष्यों से मिलते, जमुना मैया का जयघोष बुलवाते हमारा दल जानकी चट्टी के डाकबंगले में जाकर रुका। आगे की चढ़ाई ऐसी थी कि बड़े-बड़े आदमियों के फेफड़े जवाब दे जायें।
हमारे दल के संचालक श्री घोरपड़े (तत्कालीन सूचना और प्रसारण मन्त्री के निजी सचिव) बड़े अनुशासनप्रिय थे। सवेरे तीन बजे ही उठा दिया। तारों की छाया में रीछों से डरते, तैयार होकर पाँच बजे जमुना मैया की जन्मभूमि की ओर चल पड़े। प्रातःकालीन संजीवनी वायु का परस पाकर मन-प्राण में ऐसी अपूर्व शक्ति भर उठी कि ढाई मील की जान-लेवा चढ़ाई हमें आतंकित नहीं कर सकी। प्रकृति नटी ने उस प्रदेश को मानो वन-कन्या की तरह सँवारा था। इस रूप को पीते हुए हम ठण्ड-ठण्ड में बड़ी सरलता से उस भयंकर चढ़ाई को पार कर गए। मार्ग में लौटते हुए यात्री मिले जो गद्गद होकर जमुना मैया की जय पुकार रहे थे।
लेकिन जब हम जमुनोत्री पहुँचे तो सहसा धक्का लगा। एकदम तंग घाटी मानो तपस्विनी, उपेक्षिता नायिका का आवास हो। दोनों ओर गगनचुम्बी पर्वतों ने नन्ही यमुना को यमदूतों के समान घेर रखा था। यम की बहिन है न यह !
कहते हैं पुरातन काल में असित ऋषि ने यमुना के इस उद्गम को खोज निकाला था। वास्तव में बन्दर पुच्छ के 20732 फुट ऊँचे हिमशिखर पर जमुना का जन्म होता है। दूरबीन से हमने देखा तो क्षीण श्वेत दो रेखाएँ शिखर से उतर रही हैं। नीचे आते-आते वे एक हो गईं और उनका नाम हुआ कालिन्दी और यमुना। कालिन्दी इसलिए कि वह कलिन्द गिरि से निकलती है और यमुना इसलिए कि वहाँ जामुन का पेड़ बताया जाता है।
इस अगम्य तीर्थ की उँचाई केवल 10800 फुट है लेकिन शीत के कारण अधिकांश यात्री रात में यहाँ नहीं रुकते।
यहाँ का वास्तविक आकर्षण निरन्तर फक-फक करते तीन कुण्ड हैं जिनमें सहसा पैर देना कठिन होता है। धीरे-धीरे शरीर इस तापमान को सहन करता है। हम लोगों ने खूब जी भरके स्नान किया। एक कुण्ड का तापमान 195 डिग्री के लगभग है। उसमें आलू और चावल तक उबल जाते हैं। यही चावल यहाँ का प्रसाद माना जाता है। यहाँ और भी अनेक कुण्ड और धाराएँ हैं लेकिन कोई यह नहीं जानता कि जमुना की वास्तविक कथा क्या है ? व्यवस्था और स्वच्छता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। एक छोटा-सा आकर्षणहीन मन्दिर है जिसमें श्यामवर्ण यमुना और गौरवर्ण गंगा की मूर्तियाँ हैं। दोपहर बाद यहाँ कोहरा छा जाता है। हमें यहाँ रात को रुकना नहीं था इसलिए जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा और भोजनादि से निवृत्त होकर हम लौट चले। लौटने से पूर्व एक बार फिर सुमेरु पर्वत को देखा। भाप से ढके तप्त कुण्डों को देखा। देखा वेगवती गहन गम्भीर यमुना के शैशव रूप को जो बालोचित चपलता से पाषाण-खण्डों से आँख मिचौली खेलते हुए निरन्तर आगे बढ़ रही थी।
लेकिन गंगोत्री की ओर बढ़े इससे पहले अनेक में से एक रोचक घटना अवश्य बता देना चाहूँगा। हमारे दल में दो महिलायें थीं, उन्हें चढ़ने के लिए कठिनाई होगी इसलिए हमने उनके लिए कंडी कर लेना उचित समझा। एक कंडी वाले ने उन्हें देखकर कहा-‘‘एक माई जवान है और दूसरी तेज है।’’
सुनकर हम क्रोध से भर उठे। लेकिन जब हमें पता लगा कि उनकी भाषा में जवान का अर्थ ‘उचित बोझ’ और तेज का मतलब है ‘भारी’। तब हमें उतनी ही हँसी भी आई लेकिन नाटक का अन्त अभी शेष था। कंडी वाले ने कहा-‘‘अच्छा, साहब, हम ज़रा चखकर देख लें।’’
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